Thursday, December 19, 2019

चार पंक्तियाँ (२)

                                                                                                                                         १८/१२/२०१९

प्रिय पाठकगण ,
नमस्कार। इस बार अवकाश कुछ ज़्यादा ही लम्बा हो गया जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। आज कुछ और कवितायेँ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ, उम्मीद है आपको पसंद आएँगी।

१)      गृहिणी 

अक्सर जो बच जाता है 
या औरों को कम भाता है 
मैं खा लेती हूँ।
क्यूँ ?
क्यूँ कि अन्न की बर्बादी पसंद नहीं।

अक्सर जब खाना कम पड़ता है 
या हर कोई चाव से खता है 
मैं भूखी रह लेती हूँ
क्यूँ ? 
क्यूँ  कि फिर से पकाना होता नहीं। 

                                          चार पंक्तियाँ 

१)  हर मुस्कुराता चेहरा ख़ुश हो यह ज़रूरी नहीं 
     कुछ चेहरे ख़ुशफ़हमी भी दे जाते हैं

२)  अक्सर लोग हँसी मज़ाक में सच कह जाते हैं 
     और पूछने पर, बात टाल जाते हैं

३)  इतने भी ना तारीफ़ों के पुल बाँधिये 
     के मैं ज़मीं पे चलना भूल जाऊँ  

४)  ये कैसी कश्मकश है ज़हन में, ऐ ख़ुदा 
     ना रोकते बनता है, ना बरसते बनता है

    या तो इतना ऊँचा उठा कि सब को सम देख पाऊँ 
    या फिर ज़मीन में गाड़ दे कि तुझमें ही रम जाऊँ

५)  मत दिखा निवाला गर हाथ ही बांधने हों 
     अगर वाक़ई खिलाना है तो स्वयं प्रकट हो 

meना 

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